तुम हमको चट्टानों वाला
भाग भले दे दो
लेकिन जल की धार हमारे
दर से निकलेगी
इतना संकट नहीं अभी
आया विश्वासों पर
संत्रासा का कहन नहीं
टूटा है साँसों पर
पता नहीं क्यों बार-बार
अपना मन कहता है
जब उतरेगी धूप हमारी
छत पर उतरेगी।
हमें विषमताओं की आँधी
से डर नहीं लगे
नित्य भगाती रहीं व्यथाएँ
फिर भी नहीं भगे
जिनसे घर का कोना-कोना
जगमग हो जाए
उन किरणों के लिए नहीं
अँगनाई तरसेगी।
हमें समय की बर्बरताएँ
अक्सर ठगती हैं
फिर भी अपने कद के आगे
बौनी लगती हैं
जिस जमीन पर खडे़ हुए हम
हमें भरोसा है
धरा एक दिन खुशहाली से
झोली भर देगी।